Ticker

6/recent/ticker-posts

🌻धम्म प्रभात🌻

🌻धम्म प्रभात🌻 

हमारी धम्म यात्रा कुशीनगर पहुंंची जहां तथागत बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
यह महातीर्थ के परिचय संक्षिप्त में-
कुशीनारा (वर्तमान  कुशीनगर) के उपवत्तन शालवन में तथागत ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। वहां एक बड़ा स्तूप का निर्माण किया गया था। वह पवित्र स्थल अनेक सदियों तक  बौद्ध भिक्षुओ और उपासको के लिए दर्शनीय स्थल रहा। बाद में प्रतिक्रांति के चलते यह स्थल ओझल हो गया। बौद्ध भिक्षुओ का हत्याकांड हुआ या वे यहां से खदेड दिए गए। बुद्ध धम्म को मानने वाले पर अत्याचार हुआ। बुद्ध नाम भुलाने के लिए अनेक प्रकार से कांड किए गए। परिणामस्वरूप लोग बुद्ध धम्म और बौद्ध विरासत को भुल गए। यह स्थान विरान हो गया और महापरिनिर्वाण स्थल जंगल में तबदील हो गया। हजारों-हजार साल बाद 19वी सदी में फिर यह स्थान प्रकाश में आया।
सन 1904-5, 1905-6 और 1906-7 में पुरातात्विक अभियानों का संचालन किया गया जिसमें  पुरातत्वीय अवशेष का खजाना मिला। जिसमें ताम्रपत्र पर लिखा हुआ लेख भी था।  जिसमें तथागत बुद्ध के धम्म का मूल दर्शन- "प्रतीत्यसमुत्पाद सुत्त "लिखा हुआ  है।
यथा-
"अविज्जा पच्चया सङ्खारा , 
सङ्खार पच्चया विञ्ञाणं , 
विञ्ञाण पच्चया नामरूपं , 
नामरूप पच्चया सळायतनं , 
सळायतन पच्चया फस्सो , 
फस्स पच्चया वेदना , 
वेदना पच्चया तण्हा , 
तण्हा पच्चया उपादानं , 
उपादान पच्चया भवो , 
भव पच्चया जाति , 
जाति पच्चया जरा-मरणं-सोक-परिदेव-दुक्ख-दोमनस्स-उपायासा सम्भवन्ति । 
एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होती " ति । 

- अविद्या के कारण से संस्कार उत्पन्न होते हैं,
संस्कारों के कारण विज्ञान ,
विज्ञान के कारण नामरूप , 
नामरूप के कारण छह आयतन , 
छह आयतनों के कारण स्पर्श ,
स्पर्श के कारण वेदना , 
वेदना के कारण तृष्णा ; 
तृष्णा के कारण उपादान ( परिग्रह ) ; 
उपादान के कारण भव , 
भव के कारण जाति ( जन्म ) , 
जाति के कारण -जरा ( बुढ़ापा ) , मरण,शोक, परिदेव (विलाप रोना) ,
शारीरिक दुःख, दौर्मनस्य ( मानसिक दुःख ) तथा उपायास (पश्चात्ताप) उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार इस समस्त दुःखस्कन्ध ( संसार ) का समुदय ( उत्पाद ) होता है । "  
इस तथ्य के आधार पर महापरिनिर्वाण स्थान स्वीकृत हुआ। 
बर्मी भन्ते , चंद्रमुनि 1903 में भारत आए और महापरिनिर्वाण मंदिर को एक जीवित मंदिर के रूप में बनाया। 

कुशीनगर की धरती पर ई.पू. 483 वैशाख पूर्णिमा की रात को महाकारूणिक भगवान  बुद्ध ने तीन याम में अंतिम उपदेश दिया था।

रात्री का समय तीन याम= पहर में बांटा जाता है-
प्रथम याम साम को छ: बजे से रात को दश बजे तक का समय ।
 
दुतिय याम रात के दश बजे से दो बजे तक का समय ।

तृतीय याम रात के दो बजे से सुबह छ: बजे तक का समय ।

महापरिनिर्वाण के पहले भगवान ने तीनों पहर में उपदेश दिया-

- पहले पहर में मल्लो को उपदेश दिया।

- बिचले पहर में शुभद्र को उपदेश दिया और प्रव्रजित किया।

- अंतिम  पहर में भिक्खुसंघ को उपदेश दिया।

भिक्खुसंघ को उपदेश देते हुए 
तथागत कहा- 

" हन्द दानि भिक्खवे ! 
आमन्तयामि वो वयधम्मा संखारा , 
अप्पमादेन सम्पादेथाति ।"

अर्थात 
हन्त ! भिक्खुओ, अब तुम्हें कहता हूँ- संस्कार नाशमान हैं। अप्रमाद के साथ (निर्वाण) प्राप्त करो ।"
भगवान ने पिछले पहर भिक्खुसंघ को उपदेश कर बहुत भोर ही महापरिनिर्वाण प्राप्त हुए।

"अनिच्चा वत सङ्खारा, 
उप्पादवयधम्मिनो।
उपज्जित्वा निरूज्झन्ति, 
तेसं उपसमो सुखं। ।" 
          - तथागत बुद्ध
[ तथागत का महापरिनिर्वाण ] 

तथागत बुद्ध ने माघ मास की पूर्णिमा के दिन वैशाली में  महापरिनिर्वाण प्राप्त करने की घोषणा की थी। उस समय वैशाली का अंतिम दर्शन करके क्रमश: भण्डगाम, अम्बगाम, जम्बूगाम, भोगनगर, पावा होकर कुशीनगर पहुंचे। तब बैशाख पूर्णिमा का दिन था। तथागत कुशीनगर के मल्लों का जहां शालवन उपवत्तन था वहां दो शाल वृक्षो के बीच मंचक पर लेटे हुए थे। तब भगवान ने भिक्खुओं को कहा- "हन्त!,भिक्खुओ अब तुम्हें कहता हूँ"- 

"वयधम्मा सङ्खारा , अप्पमादेन सम्पादेथ ।" 

" संस्कार व्यय धर्मा है, अप्रमाद के साथ संपादन करो।" 

(अर्थात कृतवस्तु नाशमान है,  आलस न करें,  जीवन के लक्ष्य को संपादन करो।)- यह तथागत का अन्तिम वचन है। 

तब भगवान  प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए। 
प्रथम ध्यान से उठकर  द्वितीय  ध्यान को प्राप्त हुए। 

द्वितीय ध्यान से उठकर तृतीय ध्यान को प्राप्त हुए। 

तृतीय ध्यान से उठकर  चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हुए। 

चतुर्थ ध्यान से उठकर आकाशानन्त्यायतन ध्यान को प्राप्त हुए। 

आकाशानन्त्यायतन ध्यान से उठकर विज्ञानान्त्यायतन ध्यान को प्राप्त हुए। 

विज्ञानान्त्यायतन ध्यान से उठकर आकिंचन्यायतन ध्यान को प्राप्त हुए। 

आकिंचन्यायतन से उठकर नैवसंज्ञानासंज्ञायतन ध्यान को प्राप्त हुए। 

नैवसंज्ञानासंज्ञायतन ध्यान से उठकर संज्ञावेदयितनिरोध ध्यान को प्राप्त हुए। 

[तब आयुष्मान आनन्द ने आयुष्मान अनिरूद्ध भदन्त से कहा- "भन्ते अनिरूद्ध! क्या भगवान  परिनिवृत गए?" 

"आवुस आनन्द ! भगवान  परिनिवृत  नहीं हुए। संज्ञावेदयितनिरोध ध्यान को प्राप्त हुए हैं। "] 

तब भगवान  संज्ञावेदयितनिरोध  समापत्ति  ( चारों ध्यानों के ऊपर की समाधि ) से उठकर  नवसंज्ञा- नासंज्ञायतन को प्राप्त हुए। 

नवसंज्ञा- नासंज्ञायतन से प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए। 

प्रथम ध्यान से उठकर  द्वितीय  ध्यान को प्राप्त हुए। 

द्वितीय ध्यान से उठकर तृतीय ध्यान को प्राप्त हुए। 

तृतीय ध्यान से उठकर  चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हुए। 

चतुर्थ ध्यान से उठने के अनन्तर भगवान  परिनिब्बान को प्राप्त हुए। 
        साधु साधु  साधु 

भगवान परिनिब्बान प्राप्त करने के समय यह गाथा कही- 

"अनिच्चा वत सङ्खारा, 
उप्पादवय धम्मिनो।
उप्पज्जित्वा निरूज्झन्ति,  
तेसं वूपसमो सुखी'ति। ।" 

अरे! संस्कार उत्पन्न और  नष्ट होने वाले हैं। जो उत्पन्न  होकर नष्ट  होते हैं, उनका शान्त होना ही सुख है। 

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स । 
"पुक्कुस ! दुशाले में से एक मुझे ओढा  दे और एक आनंद को।"
                       -तथागत बुद्ध 

तथागत बुद्ध के इन वचनों की याद  फिर आई, जब अहमदाबाद महानगर में मौर्य समाज भवन में  पधारे संकिसा, उत्तर प्रदेश के क्रान्तिकारी बौद्ध  भिक्खु सुमित रत्न जी को उपासकों ने शॉल देकर अभिवादन  किया। 
कुछ लोग कहते है कि शॉल भेट कर स्वागत करना  मनुवादी हिन्दू परंपरा है। इसलिए, बौद्धों को चाहिए,  इस हिन्दू परंपरा से निजात लेना। यह सोच गलत  है। 

तथागत बुद्ध के जीवन की एक घटना हमारे सामने है जो दर्शाती  है कि शॉल देकर सम्मानित करना बौद्धों  की संस्कृति है। 

अपने जीवन की अंतिम चारिका करते हुए  तथागत  वैशाली से चलकर पावा पहुंचे थे। तथागत ने पावा में चुन्द के वहां अंतिम भोजन  ग्रहण किया और कुशीनगर की ओर प्रस्थान किया था। तथागत बीमार चल रहे थे। 
पावा से कुछ चलने पर वे मार्ग से हटकर  एक वृक्ष के नीचे गए। वहां जाकर आनंद के द्वारा  बिछाई गई  संघाटी पर बैठ गए।  तथागत को प्यास लगी थी। आनंद सोना नदी से पानी लाए , तथागत ने पानी पीकर प्यास  बूझाई।
जिस समय  तथागत  मार्ग से हटकर एक वृक्ष  के नीचे बैठे थे, उस समय आलार कालाम का एक शिष्य पुक्कुस  मल्ल कुशीनगर से पावा व्यापार करने के लिए जा रहा था। वह भगवान  को देखकर, भगवान के पास आया  और  प्रणाम  कर एक ओर  बैठ गया। एक ओर  बैठकर  पुक्कुस ने आलार कालाम की ध्यान  विषयक  प्रशंसा की। तब भगवान  ने आलार कालाम  से बढकर  अपनी ध्यानवस्था को बतलाया। भगवान की धम्म वाणी से प्रमुदित होकर  पुक्कुस मल्ल ने कहा- भन्ते जो मेरी आलार कालाम  में  जो श्रद्धा थी, उस में अब मुझे कोई  विश्वास नहि है। भगवान , मैं बुद्ध धम्म और  संघ की शरण लेता हूं। 
तत्पश्चात  पुक्कुस  मल्ल ने अपने इंगुर  के रंगवाले चमकते दुशाले को मंगवाकर  तथागत  को दान देना चाहा।   भगवान ने कहा, पुक्कुस! दुशाले में  से एक मुझे ओढा दे और  एक आनंद को। 
पुक्कुस  मल्ल ने एक दुशाला  तथागत को ओढाया  और  दूसरी दुशाला  आनंद को ओढाया। 

यह घटना पर से मालूम होता है कि शॉल ओढाने की परंपरा बुद्ध काल में विद्यमान थी।  यह बुद्धों की परंपरा है। इस परंपरागत संस्कृति को बरकरार रखने में कोई  दोष नही है। 

नमो बुद्धाय🙏🙏🙏 
कुशीनगर, उत्तर प्रदेश 
24.11.2023

टिप्पणी पोस्ट करा

0 टिप्पण्या