[बहुपुत्तिका सोणा थेरी]
"यो च वस्ससतं जीवे,
अपस्सं धम्ममुत्तमं ।
एकाहं जीवितं सेय्यो,
पस्सतो धम्ममुत्तमं ॥"
- तथागत
भगवान गौतम बुद्ध के शासन काल में सावत्थी (श्रावस्ती) के एक प्रतिष्ठित श्रेष्ठि-कुल में एक पुत्री ने जन्म लिया। उसका नाम पड़ा सोणा। सयानी होने पर उसका विवाह हुआ। वह पतिगृह आयी। वहां उसने दस पुत्रों को जन्म दिया। इस कारण सम्मान में वह बहुपुतिका (-बहुत पुत्रों वाली) कहलायी।
वह पति की प्रिय थी। संतानों द्वारा मान्य और सम्मानित थी। समय आने पर पुत्रों का विवाह हुआ। कुछ दिनों बाद पति प्रबजित हो गया। पति के जाने के बाद सोणा ने सभी संतानों को एक-एक घर में व्यवस्थित कर दिया। सारी धन-संपत्ति को उनमें विभाजित कर दिया। अपने लिए कुछ भी नहीं रखा। धीरे-धीरे बेटे-बहू अपने संसार में रमने लगे।
सोणा की पूछ-परख घटने लगी। मां के लिए किसी के पास समय भी नहीं रह गया। मिलने पर वे मां तक कह कर नहीं पुकारते। सोणा के लिए यह अनादर और अगौरव का भाव असह्य हो गया। उसे निर्वेद हुआ। सोचा, 'जहां स्वामी गये वहीं मैं भी चलूं। अब घर पर रह कर क्या करूंगी?'
बहुपुत्तिका सोणा ने वृद्धावस्था में प्रव्रज्या लेने का निश्चय किया। सोणा घर से बेघर हुई। विहार गयी। प्रव्रज्या पाने के लिये प्रार्थना की। भिक्षुणियों ने प्रव्रजित किया। बुढ़ापे में प्रव्रजित हुई। भिक्षुणियां उसे चिढ़ाती -
- 'बुढ़ापे में प्रव्रज्या ली। ठीक से शिक्षा ग्रहण नहीं करती। व्रत भी नहीं जानती।' सोणा को चिढ़ाये जाते देखकर उसके बेटे-बहू प्रसन्न होते, व्यंग्य करते। यह सब देख-सुनकर उसके मन में धर्म-संवेग जागा। सोचा - 'अपनी गति सुधारना अपने हाथों में है।' दृढ़ निश्चय के साथ वह उद्योग में लग गयी। बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, चलते-फिरते वह शरीर के बत्तीस अवयवों पर ध्यान करने लगी।
वृद्धावस्था में संसार त्यागने के कारण सोणा को बहुत परिश्रम करना पड़ता था। वह अविचल चित्त रात भर ध्यान-साधना में जुटी रहती। कभी वह अपने आवास का एक स्तंभ हाथ से पकड़ कर उसके सहारे रात्रि पर्यंत जाग्रत रह कर साधना में रत रहती तो कभी 'चंक्रमण करते-करते किसी से न टकरा जाऊं' ऐसा सोच किसी वृक्ष का सहारा लेकर धम्म साधना करती रहती। भिक्षुणियों का उसके प्रति सदैव उपेक्षा और निरादर भाव बना रहता।
एक दिन उन्होंने सोणा से भिक्षुणियों के लिए पानी गरम करने के लिए कहा। वह इस कार्य हेतु अग्निशाला में गयी। वहां चंक्रमण करते हुये वह विपश्यना-भावना में जुटी रही । गंधकुटी से ही भगवान ने सोणा को दृढ़तापूर्वक अभ्यास-रत देखकर यह गाथा कही
"यो च वस्ससतं जीवे,
अपस्सं धम्ममुत्तमं ।
एकाहं जीवितं सेय्यो,
पस्सतो धम्ममुत्तमं ॥"
(धम्मपद : सहस्सवग्गो)
[ उत्तम धम्म (नवविध लोकोत्तर धम्म अर्थात चार मार्ग, चार फल और निर्वाण) को न देखने वाले व्यक्ति के सौ वर्षों के जीवन से उत्तम धम्म को देखने वाले (व्यक्ति) का एक दिन का जीवन श्रेष्ठ है। ]
गाथा के अंत में सोणा ने अर्हत्व प्राप्त किया।
सोणा ने जल-पात्र को चूल्हे पर रखा था, पर आग नहीं जलायी थी। चूल्हे में आग न जलती हुई देखकर भिक्षुणियों ने कहा – “इस बूढ़ी औरत को हम लोगों ने पानी गरम करने के लिये कहा था। पर, अभी तक इसने आग भी नहीं जलायी है।"
विनम्र शब्दों में सोणा ने कहा - “यदि आप लोगों को गरम पानी चाहिए, तो घड़े से गरम पानी लेकर स्नान करें।" जब उन्होंने पानी में हाथ डाला, तो उसे गरम पाया । यही नहीं, घड़े से पानी निकाले जाने के बाद वह स्वयं फिर भर जाता।
यह देख कर भिक्षुणियां सोणा के अर्हत्व भाव को समझ गयीं। सभी झेंप-सी गयीं। उनमें से कम उम्रवाली भिक्षुणियों ने सोणा को पंचांग प्रणाम करके उससे क्षमा मांगी। वृद्धा भिक्षुणियों ने भी उसके सामने बैठकर क्षमा याचना की। तब से वृद्धा सोणा अपनी दृढ़ प्रयत्नशीलता के लिए जानी जाने लगी।
नत्थि दानि पुनब्भवो ।
एक दिन अपनी प्रतिपत्ति (धार्मिक क्रियाकलाप) का प्रत्यवेक्षण करते हुए सोणा के मुख से उदान के रूप में ये गाथाएं निकलीं :
“दस पुत्ते विजायित्वा,
अस्मि रूपसमुस्सये।
ततोहं दुब्बला जिण्णा,
भिक्खुनि उपसङ्कमि ॥
- पंचस्कंधों के मिलन-क्षेत्र इस काया से मैंने दस पुत्रों को पैदा किया । फिर दुर्बल और वृद्ध होकर मैं एक भिक्षुणी के पास गयी।
“सा मे धम्ममदेसेसि,
खन्धायतनधातुयो।
तस्सा धम्म सुणित्वान,
केसे छेत्वान पब्बजिं॥
- उसने मुझे स्कंध, आयतन और धातुओं का उपदेश दिया। उसके उपदेश को सुनकर मैं केश कटवाकर प्रव्रजित हो गयी।
“तस्सा मे सिक्खमानाय,
दिब्बचक्खु विसोधितं ।
पुब्बेनिवासं जानामि,
यत्थ मे बुसितं पुरे ॥
- उनकी शिष्या होकर साधना करते हुये मैंने विशोधित दिव्यचक्षु प्राप्त किया । आज मैं अपने पूर्वजन्मों, जहां-जहां जन्मी हूं, को याद करती हूं। ]
“अनिमित्तञ्च भावेमि,
एकग्गा सुसमाहिता।
अनन्तराविमोक्खासिं,
अनुपादाय निब्बुता ॥ "
- और अब मैं एकाग्र और सुसमाधिस्थ हो अनिमित्त (ध्यान) की भावना करती हूं। संसार को अनित्य, दुःख, अनात्म रूप में देखती हुई निर्वाण को प्राप्त कर मैंने विमोक्ष सुख में प्रवेश किया।
“पञ्चक्खन्धा परिञाता,
तिट्ठन्ति छिन्नमूलका।
धितवत्थु जरे जम्मे,
नत्थि दानि पुनब्भवो"ति ॥
- पंचस्कन्धों का पूर्ण ज्ञान प्राप्तकर मैंने उन्हें निर्मूल कर दिया। किसी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं रही। अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा।
नमो बुद्धाय 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
Ref" खुद्दकनिकाय थेरीगाथा
16.08.2023
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